Yog योग व उसके अंग
योग ( yog ) शब्द संस्कृत के युज धातु से बना है, जिसका अर्थ है जोड़ना, दो या दो से अधिक तत्व , का आपस में मिलना योग कहलाता है दो तत्वों का आपस में मिलना और एकरूप हो जाना योग है, किसी कार्य में अपने आप को लगाना, शरीर एवं मन के एकरूपता से जो कार्य पूर्ण होता है उसे योग कहते हैं। योग द्वारा शरीर मन और आत्मा की एकरूपता होती है, योग एक आनंदपूर्वक जीवन जीने की कला सिखाता है, योग सहज, सरल, तनाव मुक्त जीवन , परमानंद दायक , शांत, निर्णय लेने की क्षमता बढ़ाता हैं, आत्मा से परमात्मा के मिलन में सहायक है , योग यानि की समाधि एक तत्व का दूसरे तत्व में पूर्णतः समा जाना मिल जाना एक रूप हो जाना जुड़ जाना , दो तत्व का आपस में मिलना और एक हो जाना जैसे कि
आत्मा + परमात्मा = योग
मन , शरीर और हमारी इंद्रियो का मिलना अर्थात योग , समाधि की अवस्था यानि की योग , हमारे अंदर की काम वासना, कामना आकांक्षाए , गलत ईच्छा का परित्याग कर ईश्वरगामी हो जाना है योग, समाधि की अवस्था में वही योग समाधि कहलाती है, गलत विचारो की गंदगी, गलत संगत, और अहंकार छूटने लगते है योग के द्वारा, योग से हमारे आहार विहार अच्छे होने लगते है हमारी संगत सत्संगी होने लगती है , और ईश्वर,परमात्मा, भगवान की तरफ हमारा मन झूकने लगता हैं |
पुराने समय में हमारे ऋषि मुनियों, योगियों को ब्रहम का दर्शन होता था । समाधि की स्थिति होने पर हमारी वाणी, कर्म विचार सब ब्रहममय हो जाते हैं। हमे सास्वत सत्य की अनुभूति हो जाती है, वही योग है, योग दर्शन के अंदर चित्त वृत्ति निरोध होता है । चित्त यानि की मन , वृत्ति यानि की संस्कार, जन्म जन्मांतर के संस्कार हमारे साथ है, इस जीवन के संस्कार हमारे साथ है, उसके साथ पूर्व जन्मों के भी संस्कार हमारे साथ होते हैं, उस चित्त वृत्ति संस्कार पर अंकुश रखना चित्त वृत्ति निरोध कहलाता है।
कर्म यानि की क्रिया पर कुशलता पाना योग है। कर्म करना ही पड़ता हैं परंतु मन को काबु में रखकर जागृत होकर कर्म करना चाहिए । निष्काम कर्म, जागृत कर्म , निष्ठा पूर्वक कर्म करना चाहिए, निस्वार्थ कर्म यानि की बिना फल की आशा के कर्म करना चाहिए
योग : दो तत्वों को जोड़ने पर नया तत्व बनता है, जैसे की
H2 + O = H2O यानि की water ( पानी)
3 + 4 = 7
नि: + मल। = निर्मल
वैसे ही जीवात्मा और परमात्मा का मिलन है योग
पुरुष और प्रकृति को समझना, प्रकृति में पुरुष को देखना है योग,
प्रकृति यानि की नदी, सागर, पहाड़, धरती, आकाश, वायु ( ब्रहम स्वरूप है ) का परमात्मा , भगवान, ईश्वर मालिक है ।
हम परमात्मा के अंश है , लघु स्वरूप है, हमारा लघु स्वरूप आत्मा है
जब हम आईने के सामने खड़े होकर अपने आप को देखते है, तो आंखे नहीं दिखती हैं, और आंखों को देखने पर शरीर नही दिखाई देता है। उसी प्रकार आत्मा को देखने पर शरीर नही दिखता है, और शरीर को देखने पर आत्मा नहीं दिखती हैं।
योग आत्मा ,जीवात्मा की परमात्मा की ओर यात्रा है ।
योग के बारे में पतंजलि योग सूत्र में परिभाषित किया गया है ।
1. ” योगशिचत्तवृत्ति निरोध ” ( पातंजलि) योग से चित्त वृत्तियों पर अंकुश रखना यानि हमारे मन की आदतों पर रोक लगाना
योगशिचत्तवृत्ति निरोध कहलाता हैं । योग चित्तवृत्तियो को रोकता है, अर्थात चित्त की वृत्तियों को रोकना योग हैं।
2. ” योग : कर्मसु कौशलम ” योग से कर्मों में कुशलता आती है ( गीता)
3. ” संसार सागर से पार होने की युक्ती का नाम है योग ” ( योग – वशिष्ठ योग ) योग का प्रभाव मन ,शरीर, आध्यात्म और धर्म पर पड़ता है ।
योग में कर्म योग, ज्ञान योग व भक्ति योग शामिल हैं।
पुरुष और प्रकृति का भेद जहां समाप्त हो जाता है पुरुष और प्रकृति एक रूप हो जाते है उनमें कोई अंतर नही रह जाता है यही योग है ।
जीवात्मा का परमात्मा अपने ईश्वर भगवान में मिल जाना समा जाना एकरूप हो जाना ,मोक्ष की प्राप्ति ही योग हैं।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में हर हाल में, सुख में दुख में, हार में जीत में, अमीरी में गरीबी में, सम भाव रहने को योग बताया हैं।
योग एक प्रकार की पूर्ण चिकित्सा है जिसमे मानसिक रोग ,शारीरिक रोग,भावनात्मक रोगों का ईलाज किया जाता है , जिससे मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य, भावनात्मक स्वास्थ्य और सामाजिक स्वास्थ्य में उन्नति प्राप्त होती है।